कितनी अजीब बात है कि एक घटना जो दूसरों के स्तर पर हमें सामान्य लगती है अपनी निजी होने पर अति विशिष्ट होजाती है । दूसरों की नजर से देखें तो काकाजी का जाना कोई खास दुखद घटना नही है । पिचहत्तर पार चुके थे । हड्डी टूट जाने के कारण ढाई महीनों से बिस्तर पर थे । उनके बच्चों के बच्चे तक लायक हो चुके हैँ विवाहित होकर माता-पिता बन चुके हैं । पर मुझे अभी तक जाने क्यों लगता है कि कही कुछ ठहर गया है ,कुछ शेष रह गया है । अगर बचपन कही ठहर जाता है तो आदमी आजीवन उसके चलने की प्रतीक्षा में बच्चा ही बना उम्र तमाम कर लेता है । मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता है । जैसे जमीन से वंचित गमले में ही पनपता एक वृक्ष बौनसाई बन कर रह जाता है । मैं शायद आज भी उन्ही पगडण्डियों पर खड़ी हूँ जिन पर चलते हुए मैं कभी एक कठोर शिक्षक में अपने पिता की प्रतीक्षा करती हुई फ्राक से चुपचाप आँसू पौंछती रहती थी । काकाजी और मेरे बीच वह कठोरता दीवार बन कर खडी रही । एक उन्मुक्त बेटी की तरह मैं उनसे कभी मिल ही नही पाई । यह मलाल आज भी ज्यों का त्यों है ।
काकाजी के लिये इस शेष रही पीड़ा को शब्दों में ढाल देने के प्रयास में मैं सफल हो सकूँ यही लालसा है । आज एक नया ब्लाग शुरु कर रही हूँ --कथा--कहानी । कोशिश करूँगी कि माह दो माह में एक कहानी तो दी जासके। ये वे पुरानी कहानियाँ होंगी जो आज तक पूरी नही हो सकीं हैं । पहली कहानी काफी कुछ (खासतौर पर शिक्षक वाले प्रसंग केवल उन्ही के हैं )काकाजी से प्रेरित है । यह एक परिपूर्ण और अच्छी कहानी तो नही कही जासकती । लेकिन आप सबके विचार मुझे वहाँ तक शायद कभी पहुँचा सकेंगे ऐसी उम्मीद है । आप सबसे अपेक्षा है कि मेरी कहानियों को अपना कुछ समय अवश्य दें ।
यहां उन कविताओं को पुनः दे रही हूँ जिनके साथ --यह मेरा जहाँ --शुरु हुआ । पढ़कर अपनी राय से मुझे लाभान्वित करें ।
पिता से आखिरी संवाद
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(1)
आज ..अन्ततः,
तुमने अलविदा कह ही दिया ।
मेरे जनक ।
सब कहते हैं.....और ..मैं भी जानती हूँ कि,
अब कभी नहीं मिलोगे दोबारा..
लेकिन आज भी,
जबकि तुम्हारी धुँधली सी बेवस नजरें,
पुरानी सूखी लकड़ी सी दुर्बल बाँहें,
और पपड़ाए होंठ,
बुदबुदाते हुए से अन्तिम विदा लेरहे थे,
मैं थामना चाह रही थी तुम्हें,
कहना चाहती थी कि,
रुको,..काकाजी ,
अभी कुछ और रुको
शेष रह गया है अभी ,
बाहों में भर कर प्यार करना ,
अपनी उस बेटी को ,
जो कभी पगडण्डियों पर चलते हुए,
दौड़-दौड़ कर पीछा किया करती थी,
तुम्हारे साथ रह कर तुम्हारी उँगली थामने..
रास्ता छोटा हो जाता था
तुमसे गिनती सीखते या
सफेद कमलों के बीच तैरती बतखों को देखते
आज भी.....दुलार को तरसती तुम्हारी वही बेटी
अकेली खड़ी है उन्ही सूनी पथरीली राहों पर ।
अभी तक पहली कक्षा में ही,
आ ,ई , सीखती हुई ,
तलाश रही है राह से गुजरने वाले
हर चेहरे में ।
तुम्हारा ही चेहरा ।
भला ऐसे कोई जाता है
अपनी बेटी को,
सुनसान रास्ते में अकेली छोड़ कर ।
(2)
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यूं तो अब भौतिक रूप से,
तुम्हारे होने का अर्थ रह गया था,
साँस लेना भर एक कंकाल का
धुँधलाई सी आँखों में
तिल-तिल कर सूखना था
पीड़ा भरी एक नदी का ।
उतर आना था साँझ का
उदास थके डैनों पर ।
लेकिन अजीब लगता है
फूट पड़ना नर्मदा या कावेरी का
यों थार के मरुस्थल में
पूरे वेग से ।
स्वीकार्य नही है
तुम्हारा जाना
जैसे चले जाना अचानक धूप का
आँगन से, ठिठुरती सर्दी में ।
बहुत अखरता है,
यूँ किसी से कापी छुड़ा लेना
पूरा उत्तर लिखने से पहले ही ।
और बहुत नागवार गुजरता है
छीन लेना गुड़िया , कंगन ,रिबन
किसी बच्ची से
जो खरीदे थे उसने
गाँव की मंगलवारी हाट से ।